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उसकी माँ | uski maa, hindi story by bechan sharma Pandey


उसकी माँ | uski maa in hindi ,
उसकी माँ | uski maa in hindi ,


 


पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

प्रसिद्ध लेखक पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का जन्म सन 1900 में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के चुनार नामक गाँव में हुआ था | परिवार में कमियों के कारण उन्हें क्रमवत शिक्षा पाने का अवसर नहीं मिला | किन्तु अपनी नैसर्गिक प्रतिभा और मेहनत से उन्होंने अपने समय के अग्रणी गद्य - शिल्पी के रूप मे अपनी पहचान बनाई | अपने विख्यात तेवर और शैली के कारण उग्र जी अपने समय के चर्चित लेखक रहें |  

उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

  
 


अपने कवी मित्र निराला की तरह उन्हें भी पुरातपंथियों के कठोर विरोध का सामना करना पड़ा | पत्रकारिता से उग्र जी का निरंतर संबंध था | वे आज, विश्वामित्र, स्वदेश, वीणा, स्वराज्य और विक्रम के संपादक रहे | उग्र जी ने सौ से अधिक कहानियाँ लिखी है जो पंजाब की महारानी, रेशमी, पोली इमारत, चित्र-विचित्र, कंचन सी काया, काला कोठरी, ऐसी होली खेलो लाल, कला का पुरस्कार आदि में संकलित है | चंद हसीनों के खतूत, बंधुआ की बेटी, दिल्ली का दलाल, मनुष्यानंद आदि | उन्होंने अनेक यथार्थवादी उपन्यासों की रचना भी की | उन्होंने कहानी और उपन्यासों के अलावा आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र आदि के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया है | उनकी आत्मकथा अपनी खबर साहित्य की दुनिया में बहुचर्चित रही | उन्होनें महात्मा ईसा (नाटक) और ध्रुवधारण (खंडकाव्य) की भी रचना की है | उग्र जी की कहानियों की भाषा सरल, अलंकृत, और व्यवहारिक है, जिसमें उर्दू के व्यवहारिक शब्द भी स्वयं हीं आ जातें हैं | भावों को मूर्तिमंत करने में इनकी भाषा बहुत हीं सजीव और सशक्त कही जा सकती है, जो पाठक को सोंच पर प्रत्यक्ष प्रहार करते हैं | भावों के अनुरूप इनकी शैली भी व्यंग्यपरक है | इनकी कहांनियों में उसकी माँ, शाप, कला का पुरस्कार, जल्लाद और देशभक्त आदि खासतौर से विख्यात है | उग्र जी प्रेमचंद जी के समय के कहानीकार हैं इसलिए उस समय की मुख्य प्रवृति समाज सुधार इनकी कहानियों में भी शामिल है | 

उसकी माँ

उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

 

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पाठ का परिचय

उसकी माँ की कहानी देश की बुरी अवस्था में चिंतित युवा पीढ़ी के विद्रोह को नए रूप में प्रकट करती है | यह युवा पीढ़ी देश की बुरी अवस्था के जिम्मेदार शासन प्रणाली को मानती है तथा इस शासन प्रणाली को बहार फेंकना चाहती है | दुष्ट, व्यक्ति-नाशक राष्ट्र को मिटाने में अपना योगदान ही इस पीढ़ी का सपना है | यथार्थ  तुफानो से बेखबर यह पीढ़ी जानती है कि मिट जाना तो यहाँ का नियम है | जो बनाया गया है, वह मिटेगा हीं | हमें कमजोरी के भय से अपना कार्य नहीं रोकना चाहिए | काम के समय हमारी भुजाएँ कमजोर नहीं भगवान के हजारों भुजाओं की सखियाँ है | 

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दोपहर को जरा आराम करके उठा था | अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में खड़ा-खड़ा बड़ी-बड़ी अलमारियों में सजे पुस्तकालय को ओर निहार रहा था | किसी महान लेखक की कोई कृति उनमें से निकालकर दखने की बात सोंच रहा था | मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान हीं महान नज़र आए | | कहीं गेटे कहीं रूसो कहीं मेजिनी कहीं नीत्शे कहीं शेक्सपीयर, कहीं टॉलस्टाय, कहीं ह्यूगो, कहीं मोपासाँ, कहीं डिकेंस, स्पेंसर, मैकाले, मिल्टन, मोलियर...... उफ़ ! इधर से उधर तक एक से एक महान हीं तो थें ! आखिर मैं किसके साथ चाँद मिनट मनबहलाव करूँ , यह निश्चय हीं न हो सका , महानों के नाम पढ़ते-पढ़ते हीं परेशान सा हो गया |

इतने में मोटर की पों-पों सुनाई पड़ी | खिड़की से झाँका तो सुरमई रंग की कोई ' फिएट ' गाड़ी दिखाई पड़ी | मैं सोचने लगा - शायद कोई मित्र पधारे हैं , अच्छा है महानों से जान बची !

जब नौकर ने सलाम कर आनेवाले का कार्ड दिया , तब मैं कुछ घबराया | उसपर शहर के पुलिस सुपरिटेंडेंट का नाम छपा था | ऐसे बेवक्त ये कैसे आए ?

पुलिस -पति (  गृह-स्वामी ) भीतर आये | मैंने हाँथ मिलाकर , चक्कर खानेवाली एक गद्दीदार कुर्सी पर उन्हें आसन दिया | वे व्यापारिक मुस्कुराहट से लैस होकर बोले, " इस अचानक आगमन के लिए मुझे क्षमा करें | "

" आज्ञा हो " ! मैंने भी नम्रता से कहा | 

उन्होंने पॉकेट से डायरी निकाली , डायरी से एक तस्वीर | बोले , " देखिये इसे , जरा बताइए तो , आप पहचानते हैं इसको ? "

" हैं , पहचानता तो हूँ , "  जरा सहमते हुए मैंने बताया | 

" इसके बारे में मुझे आप से कुछ पूछना है | "

" पूछिए | " 

" इसका नाम क्या है | "

" लाल ! मैं इसी नाम से बचपन से हीं इसे पुकारता आ रहा हूँ | मगर , यह पुकारने का नाम है | एक नाम कोई और है ,  मुझे याद नहीं | "

" कहाँ रहता है यह ? " सुपरिटेंडेंट ने मेरी तरफ देखकर पूछा | 

" मेरे बंगले के ठीक सामने एक दोमंजिला , कच्चा-पक्का घर है ,  उसी में वह रहता है | वह और उसकी बूढी माँ | "

" बूढी का नाम क्या है ? "

" जानकी | " 

" और कोई नहीं है क्या इसके परिवार में ? दोनों का पालन पोषण कौन करता है ? "

" सात-आठ वर्ष हुए , लाल के पिता का देहांत हो गया | अब उसके परिवार में वह और उसकी माँ हीं बचे हैं | उसका पिता जब तक जीवित रहा , बराबर मेरी जमींदारी का मुख्य मैनेजर रहा | उसका नाम रामनाथ था | वही मेरे पास कुछ हजार रूपए जमा कर गया था , जिससे अब तक उनका खर्च चल रहा है | लड़का कॉलेज में पढ़ रहा है | जानकी को आशा है , वह साल दो साल बाद कमाने और परिवार को संभालने लगेगा | मगर क्षमा कीजिये , क्या मैं ये पूछ सकता हूँ कि आप इसके बारे में क्यों इतनी पूछताछ कर रहें हैं ? "

" यह तो मैं आपको नहीं बता सकता , मगर इतना आप समझ लें , यह सरकारी काम है | इसलिए आज मैंने आपको इतनी तकलीफ दी है | "

" अजी , इसमें तकलीफ की क्या बात है | हम तो सात पुश्तों से सरकार के फ़रमाबरदार हैं | और कुछ आज्ञा...... "

" एक बात और.... " , पुलिस ने पति से गंभीरतापूर्वक धीरे से कहा , " मैं मित्रता सी आप से निवेदन करता हूँ , आप इस परिवार से सावधान और दूर रहें | फ़िलहाल इससे अधिक मुझे कुछ और कहना नहीं | "

" लाल की माँ ! " एक दिन जानकी को मैंने बुलाकर समझाया , " तुम्हारा लाल आजकल क्या पाजीपन करता है ? तुम उसे केवल प्यार करती हो न ! भोगोगी ! "

" क्या है बाबू ? " उसने कहा | 

" लाल क्या करता है ? " 

" मैं तो उसे कोई भी बुरा काम करते नहीं देखती | " 

" बिना किए हीं तो सरकार किसी के पीछे पड़ती नहीं | हाँ , लाल की माँ ! बड़ी धर्मात्मा , विवेकी और न्यायी सरकार है यह | जरूर तुम्हारा लाल कुछ करता होगा | "

" माँ ! माँ !" पुकारता हुआ उसी समय लाल भी आया - लम्बा , सुडौल , सुन्दर और तेजस्वी |

" माँ ! उसने मुझे नमस्कार कर जानकी से कहा - " तूँ यहाँ भाग आई है | चल तो | मेरे कई सहपाठी वहाँ खड़े हैं , उन्हें चटपट कुछ जलपान करा दे , फिर हम घूमने जाएँगें ! "

" अरे | " जानकी के चेहरे की झुर्रियाँ चमकने लगीं , काँपने लगीं , उसे देखकर " तू आ गया लाल | 

चलती हूँ भैया ! पर , देख तो , तेरे चाचा क्या शिकायत कर रहें हैं ? तू क्या पाजीपन करता है बेटा ? "

" क्या है , चाचा जी ? " उसने सविनय, सुमधुर स्वर में मुझसे पूछा , " मैंने क्या अपराध किया है ? "

" मैं तुम से नाराज हूँ लाल | " मैंने गंभीर स्वर में कहा | 

" क्यों चाचा जी ? "

" तुम बहुत बुरे होते जा रहे हो , जो सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करनेवाले के साथी हो | हाँ तुम हो ! देखो लाल की माँ , इसके  रंग उड़ गया , यह सोंचकर की यह खबर मुझे कैसे मिली | " 

सचमुच एक बार उसका खिला हुआ चेहरा मुरझा गया , मेरी बातों से ! पर तुरंत हीं वह संभला | 

" आपने गलत सुना , चाचा जी | मैं किसी षड्यंत्र में नहीं | हाँ मेरे विचार स्वतंत्र अवश्य है , मैं जरूरत-बेजरूरत जिस-तिस के आगे उबल अवश्य उठता हूँ | देश की दुरवस्था पर उबल उठता हूँ , इस पशु ह्रदय परतंत्रता पर | " 

" तुम्हारी हीं बात सही , तुम षड्यंत्र में नहीं , विद्रोह में नहीं , पर यह बक-बक क्यों ? इसका फायदा ? तुम्हारी इस बक-बक से न तो देश की दुर्दशा दूर होगी और न उसकी पराधीनता | तुम्हारा काम पढ़ना है , पढ़ो | इसके बाद कर्म करना होगा , परिवार और देश की मर्यादा बचानी होगी | तुम पहले अपने घर का उद्धार तो कर लो , तब सरकार के सुधार का विचार करना | "

उसने नम्रता से कहा , " चाचा जी , क्षमा कीजिये | इस विषय में मैं आप से विवाद नहीं करना चाहता | "

" चाहना होगा , विवाद करना होगा | मैं केवल चाचा जी नहीं, तुम्हारा बहुत कुछ हूँ | तुम्हें देखते हीं मेरे आँखों के सामने रामनाथ नाचने लगते हैं , तुम्हारी बूढी माँ घूमने लगती है | भला मैं तुम्हें बेहाथ होने दे सकता हूँ ! इस भरोसे मत रहना | "

" इस पराधीनता के विवाद में , चाचा जी , मैं और आप दो भिन्न सिरों पर हैं | आप कट्टर राजभक्त और मैं कट्टर राजविद्रोही | आप पहली बात को उचित समझतें है - कुछ कारणों से , मैं दूसरी को - दूसरे कारणों से | आप अपना पद छोड़ नहीं सकतें - अपनी प्यारी कल्पनाओं के लिए , मैं अपनी भीं नहीं छोड़ सकता | " 

" तुम्हारी कल्पनाएँ क्या हैं , सुनूँ तो ! जरा मई भी जान लूँ कि अब के लड़के कॉलेज के गरदन तक पहुँचते - पहुँचते कैसे - कैसे हवाई किले उठाने के सपने देखने लगतें हैं | जरा मैं भी तो सुनू , बेटा | "

" मेरी कल्पना यह है कि जो व्यक्ति समाज या राष्ट्र के नाश पर जीता हो , उसका सर्वनाश हो जाए | " 

जानकी उठकर बाहर चली, " अरे ! तू तो जमकर चाचा से जमकर जूझने लगा | वहाँ चार बच्चें बिचारे दरवाजे पर खड़े होंगें |  लड़ तू , मैं जाती हूँ | "उसने मुझसे कहा , समझा दो बाबू ,मैं तो आप हीं कुछ नहीं समझती ,  फिर इसे क्या समझाऊँगीं ! " उसने फिर लाल की ओर देखा , " चाचा जो कहें , मान जा , बेटा | यह तेरे भले ही की कहेंगें | " 

वह बेचारी कमर झुकाए , उस साठ बरस की वय में भी घूँघट सँभाले चली गई | उस दिन उसने मेरे और लाल की बातों की गंभीरता नहीं समझी | 

" मेरी कल्पना यह है कि --" , उतेजित स्वर में लाल ने कहा , " ऐसे दुष्ट , व्यक्ति-नाशक राष्ट्र के सर्वनाश में मेरा भी हाथ हो | " 

" तुम्हारे हाँथ दुर्बल हैं , उनसे जिनसे तुम पंजा लेने जा रहे हो , चर्र-मर्र हो उठेंगें , नष्ट हो जाएँगे | " 

" चाचा जी नष्ट हो जाना तो यहाँ का नियम है | जो सँवारा गया है , वह बिगड़ेगा हीं | हमे दुर्बलता के दर से अपना काम रोकना नहीं चाहिए | कर्म के समय हमारी भुजाएँ दुर्बल नहीं , भगवान् के सहस्र भुजाओं की सखियाँ हैं | "

" तो तुम क्या करना चाहते हो ? "

" जो भी मुझसे हो सकेगा , करूंगा |  "

" षड़यंत्र ? "

" जरूरत पड़ी तो जरूर..... "

" विद्रोह ? "

" हाँ , अवश्य ! "

" हत्या ? "

" हाँ , हाँ , हाँ ! "

" बेटा , तुम्हारा माथा न जाने कौन सी किताब पढ़ते-पढ़ते बिगड़ रहा है | सावधान ! "

मेरी धर्मपत्नी और लाल की माँ एक दिन बैठी हुई बातें कर रही थी कि मैं पहुँच गया | कुछ पूछने के लिए कई दिनों से मैं उसकी तलाश में था | 

" क्यों लाल की माँ , लाल के साथ किसके लड़के आते हैं तुम्हारे घर में ? "

" मैं क्या जानूँ , बाबू !" उसने सरलता से कहा , " मगर वे सभी मुझे लाल के तरह प्यारे दिखते है | सब लापरवाह ! वो इतना हँसते, गाते और हो हल्ला मचाते हैं कि मैं मुग्ध हो जाती हूँ | "

मैंने एक ठंडी साँस ली , " हूँ , ठीक कहती हो | वे बातें कैसी करतें हैं , कुछ समझ पाती हो ? " 

" बाबू , वे लाल की बैठक में बैठते हैं | कभी-कभी जब मैं उन्हें कुछ खिलाने - पिलाने जाती हूँ , तब वे बड़े प्रेम से  मुझे ' माँ ' कहतें हैं | मेरी छाती फूल उठती है...... मनो वे मेरे हीं बच्चे हैं |  "

" हूँ....... " , मैंने फिर साँस ली | 

" एक लड़का उनमें बहुत हीं हंसोड़ है | खूब तगड़ा और बाली दिखता है | लाल कहता था, वह डंडा लड़ने में , दौड़ने में , घूंसेबाजी में , खाने में , छेड़खानी करने और हो-हो , हा-हा कर हंसने में समूचे कॉलेज में फर्स्ट है | उसी लड़के ने एक दिन , जब मैं उन्हें हलवा परोस रही थी, मेरे मुँह की ओर देखकर कहा , ' माँ ! तू तो ठीक भारत माता सी लगती है | तू बूढी , वह बूढी | उसका उजला हिमालय है , तेरे केश | हाँ , नक्शे से साबित करता हूँ...... तू भारत माता है | सिर तेरा हिमालय....... माथे की दोनों गहरी बड़ी रेखाएँ गंगा और यमुना, यह नाक विंध्याचल, ठोढ़ी कन्याकुमारी तथा छोटी-बड़ी झुर्रियाँ -रेखाएँ भिन्न-भिन्न पहाड़ और नदियाँ हैं | जरा पास आ मेरे ! तेरे केशों को पीछे से आगे बाएँ कंधे के तरफ लहरा दूँ , वह वर्मा बन जायेगा | बिना उसके भारत माता का श्रृंगार शुद्ध न होगा '|  "

जानकी उस लड़के की बातें सोंच गदगद हो उठी, " बाबू, ऐसा ढीठ लड़का ! सारे बच्चे हँसते रहें और उसने मुझे पकड़, मेरे बालों को बाहर कर अपना वर्मा तैयार कर लिया ! "

उसकी सरलता मेरी आँखों में आंसू बनकर छा गई | मैंने पूछा, " लाल की माँ, और भी वे कुछ बातें करतें हैं ? लड़ने की , झगड़ने की, गोला, गोली या बन्दुक की ? " 

" अरे बाबू , " उसने मुस्कुराकर कहा, " वे सभी बातें करतें हैं | उनकी बातों का कोई मतलब थोड़े हीं होता है | सब जवान हैं, लापरवाह हैं | जो मुँह में आता है, बकते हैं | कभी-कभी तो पागलों सी बातें करतें हैं | महीनाभर पहले लड़के बहुत उतेजित थें | न जाने कहाँ, लड़कों को सरकार पकड़ रही है | मालूम नहीं, पकड़ती भी है या वे यों हीं गप हांकते थें | मगर उस दिन वे यही बक रहें थें ' पुलिसवाले केवल संदेह पर भले आदमियों के बच्चों को त्रास देतें हैं , मारते हैं, सताते हैं | यह अत्याचारी पुलिस की नीचता है | ऐसी नीच शासन प्रणाली को स्वीकार करना अपने धर्म को , कर्म को , आत्मा को, परमात्मा को भूलना है | धीरे-धीरे घुलाना - मिटाना है | '

एक ने उत्तेजित भाव से कहा, ' अजी, ये परदेसी कौन लगतें हैं हमारे, जो बरबस राजभक्ति बनाए रखने के लिए हमारी छाती पर तोप का मुँह लगाए अड़े और खड़े हैं | उफ़ ! इस देश के लोगों की हिये की आँखे मुंद गई है | तभी तो इतने जुल्मों पर भी आदमी-आदमी से डरता है | ये लोग शरीर की रक्षा के लिए अपनी-अपनी आत्मा की चिता सवारते फिरते हैं | नाश हो इस परतन्त्रवाद का | '

दूसरे ने कहा - ' लोग ज्ञान न पा सकें , इसलिए इस सरकार ने हमारे पढ़ने लिखने के साधनों को अज्ञान से भर रखा है | लोग वीर और स्वाधीन न हो सकें, इसलिए अपमानजनक और मनुष्यताहीन नीति - मर्दक कानून गढ़े हैं | गरीबों को चूसकर, सेना के नाम पर पले हुए पशुओं को शराब से, कवाब से, मोटा-ताजा रखती है यह सरकार | धीरे-धीरे जोंक की तरह हमारे धर्म, प्राण और धन चूसती चली जा रही है यह शासन-प्रणाली !'

' ऐसे हीं अंट - संट ये बातूनी बका करतें हैं, बाबू | जभी चार छोकरे जुटे, तभी यही चर्चा | लाल के साथियों का मिजाज भी उसी-सा अल्हड-बिल्हड़ मुझे मालूम पड़ता है | ये लड़के ज्यों-ज्यों पढ़ते जा रहें हैं, त्यों-त्यों बक -बक में बढ़ते जा रहे हैं | '

" यह बुरा है, लाल की माँ ! " मैंने गहरी साँस ली |

उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'



 


जमींदारी के कुछ जरूरी काम से चार-पाँच दिनों के लिए बाहर गया था | लौटने पर बंगले में घुंसने के पूर्व लाल के दरवाजे पर नजर पड़ी तो वहाँ एक भयानक सन्नाटा सा नाजर आया - जैसे घर उदास हो, रोता हो | भीतर आने पर मेरी धर्मपत्नी मेरे सामने उदास मुख खड़ी हो गई | 

" तुमने सुना ? "

" नहीं तो , कौन सी बात ? " 

" लाल की माँ पर भयानक विपत्ति टूट पड़ी है | "

मैं कुछ कुछ समझ गया , फिर भी विस्तृत विवरण जानने को उत्सुक हो उठा, " क्या हुआ, जरा साफ़-साफ़ बताओ | " 

" वही हुआ जिसका तुम्हें भय था | कल पुलिस की एक पलटन ने लाल का घर घेर लिया था | बारह घंटे तक तलाशी हुई |  लाल, उसके बारह - पंद्रह साथी, सभी पकड़ लिए गए हैं | सबके घरों से भयानक-भयानक चीजें निकली हैं | " " लाल के यहाँ ? "

" उसके यहाँ भी दो पिस्तौल, बहुत से कारतूस और पत्र पाए गए हैं | उन पर हत्या, षड्यंत्र, सरकारी राज उलटने की चेष्टा आदि अपराध लगाए गए हैं | "

" हूँ, मैंने ठंडी साँस ली, " मैं तो महीनों से चिल्ला रहा था कि लौंडा धोखा देगा | अब यह बूढी बेचारी मरी | वह कहाँ है ? तलाशी के बाद तुम्हारे पास आयी थी ? "

" जानकी मेरे पास कहाँ आयी ! बुलवाने पर भी कल नकार गई | नौकर से कहलाया, ' परांठे बना रही हूँ , हलवा तरकारी अभी बनाना है, नहीं तो वो बिल्हड़ बच्चे हवालात में मुरझा न जायेंगें | जेलवाले और उत्साही बच्चों की दुश्मन यह सरकार उन्हें भूखो मार डालेगी | मगर मेरे जीते जी यह नहीं होने का '| 

" वह पागल है , भोगेगी , " मैं दुःख से टूटकर चारपाई पर गिर पड़ा | मुझे लाल के कर्मों पर घोर खेद हुआ | 

इसके बाद प्रायः एक वर्ष तक मुकदमा चला | कोई भी कागजात उलट कर देख सकता है , सी 0 आई 0 डी 0 ने और प्रमुख सरकारी वकील ने उन लड़कों पर बड़े-बड़े दोषारोपण किये | उन्होंने चारो ओर गुप्त समितियाँ कायम की थीं, खर्चे और प्रचार के लिए डाके डाले थें, सरकारी अधिकारीयों के यहाँ रात में छापामारकर शस्त्र एकत्र किये थें | उन्होंने न जाने पुलिस के किस दारोगा को मारा था और न जाने कहाँ, न जाने किस सुपरिटेंडेंट को | ये सारी बातें सरकार की ओर से प्रमाणित की गई | 

उधर उन लड़कों के पीठ पर कौन था ? प्रायः कोई नहीं | सरकार के डर के मारे पहले तो कोई वकील हीं नहीं मिल रहा था, फिर एक बेचारा मिला भी, तो ' नहीं ' का भाई | हाँ, उनकी पैरवी में सबसे अधिक परेशान वह बूढी रहा करती | वह लोटा, थाली, जेवर आदि बेच-बेचकर सुबह शाम उन बच्चो को भोजन पहुंचाती | फिर वकीलों के यहाँ जाकर दाँत निपोरती, गिड़गिड़ाती, कहती, " सब झूठ है | न जाने कहाँ से पुलिसवालों ने ऐसी-ऐसी चीजें हमारे घरों से पैदा कर दी है | वे लड़के केवल बातूनी हैं | हाँ मैं भगवान के चरण छू कर कह सकती हूँ, तुम जेल में जाकर देख आओ, वकील बाबू | भला, फूल से बच्चे हत्या कर सकते हैं ? "

उसका तन सुखकर कांटा हो गया , कमर झुककर धनुष-सी हो गई, आँखे निस्तेज मगर उन बच्चो के दौड़ना, हाय-हाय करना उसने बंद न किया | कभी-कभी सरकारी नौकर, पुलिस या वार्डन झुंझलाकर उसे झड़क देंतें, धकिया देते ? "

उसको अंत तक यह विश्वास रहा कि यह सब पुलिस की चालबाजी है | अदालत में जब दूध का दूध और पानी का पानी किया जायेगा, तब वे बच्चें जरूर बेदाग छूट जायेंगें | वे फिर उसके घर में लाल के साथ आएंगें | उसे माँ कहकर पुकारेंगें | मगर उस दिन उसकी कमर टूट गई, जिस दिन ऊँची अदालत ने भी लाल को, उस बंगड़ लठैत को तथा दो और लड़कों को फांसी और दस को दस वर्ष से सात वर्ष तक की कड़ी सजाएँ सुना दी | 

वह अदालत की बहार झुंकी खड़ी थी | बच्चे बेड़ियाँ बजाते, मस्ती से झूमते बाहर आए | सबसे पहले उस बंगड़ की नजर पड़ी | " माँ !" वह मुस्कुराया, " अरे, हमें तो हलवा खिला-खिलाकर तूने गधे सा तगड़ा कर दिया है, ऐसा की फांसी की रस्सी टूट जाये और हम अमर के अमर बने रहें, मगर तू स्वयं सूखकर काँटा हो गई है | क्यों पगली तेरे लिए घर में खाना नहीं है क्या ? " " माँ ! " उसके लाल ने कहा, " तू भी जल्दी वहीं आना जहाँ हमलोग जा रहें हैं | यहाँ से थोड़ी देर का रास्ता है, माँ ! एक साँस में पहुंचेगी | वहीं हम स्वतंत्रता से मिलेंगें | तेरी गोद  खेलेंगें | तुझे कंधे पर उठाकर इधर से उधर दौड़ते फिरेंगे | समझती है ? वहाँ बड़ा आनंद है | "

" आएगी न माँ ? " बंगड़ ने पूछा | 

" आएगी न माँ ? " लाल ने पूछा | 

" आएगी न माँ ? " फांसी दंड प्राप्त दो दूसरे लडकों ने भी पूछा | 

और वह टुकर-टुकर उनका मुँह ताकती रही - " तुम कहाँ जाओगे पगलों ? "

जब से लाल और उसके साथी पकड़े गए, तब से शहर या मोहल्ले का कोई भी आदमी लाल की माँ से मिलने से डरता था | उसे रास्ते में देखकर जानने पहचाननेवाले बंगले झांकने लगते | मेरा स्वयं अपार प्रेम था उस बेचारी बूढी पर, मगर मैं बराबर दूर हीं रहा | कौन अपनी गरदत मुसीबत में डालता, विद्रोही की माँ से संबंध रखकर ? उस दिन ब्यालू करने के बाद कुछ देर के लिए पुस्तकालय वाले कमरे में गया , किसी महान लेखक की कोई महान कृति क्षणभर देखने की लालच से | मैंने मेजिनी की एक जिल्द निकालकर उसे खोला | पहले हीं पन्ने पर पेंसिल की लिखावट देखकर चौंका | ध्यान देने पर पता चला, वे लाल के हस्ताक्षर थें | मुझे याद पड़ गई | तीन वर्ष पूर्व उस पुस्तक को मुझसे मांगकर उस लड़के ने पढ़ा था | एक बार मेरे मन में बड़ा मोह उत्पन्न हुआ उस लड़के के लिए | उसके पिता रामनाथ की दिव्य और स्वर्गीय तस्वीर मेरे आँखों के आगे नाच गई | लाल की माँ पर उसके विचारो, सिद्धांतों और आचरणों के कारण जो वज्रपात हुआ था, उसकी एक ठेंस मुझे भी, उसके हस्ताक्षर को देखते हीं लगी | मेरे मुँह से एक गंभीर, लाचार, दुर्बल साँस निकलकर रह गई | पर, दूसरे हीं क्षण पुलिस सुपरिटेंडेंट का ध्यान आया | उसकी भूरी, डरावनी अमानवीय आँखें मेरी ' आप सुखी तो जग सुखी ' आँखों में वैसे हीं चमक गई, जैसे - ऊजड़ गाँव के सिवान में कभी-कभी भुतही चिंगारी चमक जाया करती है | उसके रूखे फौलादी हाँथ, जिनमें लाल की तस्वीर थी, मानो मेरी गर्दन चापने लगें | मैं मेज पर से रबर उठाकर उस पुस्तक पर से उसका नाम उधेड़ने लगा | उसी समय मेरी पत्नी के साथ लाल की माँ वहाँ आयी | उसके हाँथ में एक पत्र था | 

" अरे !" मैं अपने को रोक न सका, " लाल की माँ ! तुम तो बिलकुल पीली पड़ गई हो | तुम इस तरह मेरी ओर निहारती हो, मनो कुछ देखती हीं नहीं हो | यह हाँथ में क्या है ?"

उसने चुपचाप पत्र मेरे हाँथ में दे दिया | मैंने देखा, उस पर जेल की मुहर थी | सजा सुनाने के बाद वह वहीं भेज दिया गया था, यह मुझे मालूम था | 

मैं पत्र निकालकर पढ़ने लगा | वह उसकी अंतिम चिठ्ठी थी | मैंने कलेजा रूखाकर उसे जोर से पढ़ दिया -

" माँ !

जिस दिन तुम्हें यह पत्र मिलेगा उसके सवेरे मैं बाल अरुण के किरण - रथ पर चढ़कर उस ओर चला जाऊँगा | मैं चाहता तो अंत समय तुमसे मिल सकता था, मगर इससे क्या फायदा ! मुझे विश्वास है, तुम मेरी जन्म जन्मांतर की जननी हीं रहोगी | मैं तुमसे दूर कहाँ जा सकता हूँ ! माँ ! जब तक पवन साँस लेता है, सूर्य चमकता है, समुद्र लहराता है, तब तक कौन मुझे तुम्हारी करुणामयी गोद से दूर खिंच सकता है ?

दिवाकर थमा रहेगा, अरुण रथ लिए जमा रहेगा ! मैं, बंगड़, वह, यह सभी तेरे इंतजार में रहेंगें | हम मिले थें, मिले हैं, मिलेंगें | हाँ, माँ !

तेरा......... 

लाल "

कांपते हाँथ से पढ़ने के बाद पत्र को मैंने उस भयानक लिफाफे में भर दिया | मेरी पत्नी की विकलता हिचकियों पर चढ़कर कमरे को करुणा से कंपाने लगी | मगर, वह जानकी ज्यों - की - त्यों, लकड़ी पर झुंकी, पूरी खुली और भावहीन आँखों से मेरी और देखती रही, मानों वह उस कमरे में थी हीं नहीं | क्षणभर बाद हाँथ बढ़ाकर मौन भाषा में उसने पत्र माँगा | और फिर, बिना कुछ कहे कमरे के फाटक के बाहर हो गई, डुगुर-डुगुर लाठी टेकती हुई | 

इसके बाद शून्य सा होकर मैं धम से कुर्सी पर गिर पड़ा | माथा चक्कर खाने लगा | उस पाजी लड़के के लिए नहीं, इस सरकार की क्रूरता के लिए भी नहीं, उस बेचारी भोली, बूढी जानकी- लाल के माँ के लिए | आह ! कैसे स्तब्ध थी | उतनी स्तब्धता किसी दिन प्रकृति को मिलती तो आंधी आ जाती | समुद्र पाता तो बौखला उठता | जब एक का घंटा बजा, मैं जरा सगबगाया | ऐसा मालूम पड़ने लगा जैसे हरारत पैदा हो गई है..... माथे में, छाती में, रग-रग में | पत्नी ने आकर कहा, " बैठे हीं रहोगे ! सोओगे नहीं ? " मैंने इशारे से उन्हें जाने को कहा | 

फिर मेजिनी के जिल्द पर नजर गई उसके ऊपर पड़े रबर पर भी | फिर अपने सुखों की, जमींदारी की, धनिक जीवन की और उस पुलिस अधिकारी की निर्दय, नीरस, निरस्स आँखों की स्मृति कलेजे में कंपन भर गई |  फिर रबर उठाकर मैंने उस पाजी का पेन्सिल - खचित नाम पुस्तक की छाती पर से मिटा डालना चाहा | 

" माँ।।।।।।।।।।।।।। ......... "

मुझे सुनाई पड़ा | ऐसा लगा, गोया लाल की माँ कराह रही है | मैं रबर हाँथ में लिए, दहलते दिल से, खिड़की की ओर बढ़ा | लाल के घर की ओर कान लगाने पर सुनाई न पड़ा | मैं सोचने लगा, भ्रम होगा | वह अगर कराहती होती तो एकाध आवाज और अवश्य सुनाई पड़ती | वह कराहनेवाली औरत है भी नहीं | रामनाथ के मरने पर भी उस तरह नहीं घिघियाई जैसे साधारण स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर तड़पा करती है | मैं पुनः सोचने लगा | वह उस नालायक के लिए क्या नहीं करती थी ! खिलौने की तरह, आराध्य की तरह, उसे दुलारती और सँवारते फिरती थी | पर आह रे छोकरे !

" माँ।।।।।।।।।।।।।।। ..... "

फिर  आवाज जरूर जानकी रो रही है | जरूर वही विकल, व्यथित, विवश बिलख रही है | हाय री माँ ! अभागिन वैसे हीं पुकार रही है जैसे वह पाजी गाकर, मचलकर, स्वर को खींचकर उसे पुकारता था | अँधेरा धूमिल हुआ, फीका पड़ा, मिट चला | उषा पीली हुई, लाल हुई | रवि रथ लेकर वहाँ क्षितिज से उस छोर पर आकर पवित्र मन से खड़ा हो गया | मुझे लाल के पत्र की याद आ गई | 

" माँ।।।।।।।।।।।।।।।। ...... "

मानो लाल पुकार रहा था, मानो जानकी प्रतिध्वनि की तरह उसी पुकार को गा रही थी | मेरी छाती धक्-धक् करने लगी | मैंने नौकर को पुकार कर कहा, " देखो तो लाल की माँ क्या कर रही है ? "

जब वह लौटकर आया, तब मैं एक बार पुनः मेज और मेजिनी के सामने खड़ा था | हाथ में रबर लिए उसी उद्देश्य से | उसने घबराये स्वर में कहा, " हुजूर उनकी तो अजीब हालत है | घर में ताला पड़ा है और वे दरवाजे पर पाँव पसारे , हाथ में कोई चिट्ठी लिए, मुँह खोल, मरी बैठी हैं | हाँ सरकार, विश्वास मानिये, वे मर गईं हैं | साँस बंद है, आँखे खुली..... " 

उसकी माँ | uski maa in hindi , पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'




                          

            

            



      
      
      


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Milan Tomic

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