Magic Point

मौलिक अधिकार, हिंदी में





अध्याय - 2 , भारतीय संविधान में अधिकार

 

* संवैधानिक अधिकारों का महत्व

* अधिकारों का घोषणा पत्र

* भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार

* स्वतंत्रता का अधिकार

जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार

निवारक नजरबंदी

* अन्य स्वतंत्रताएँ

* शोषण के विरूद्ध अधिकार 

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

सभी धर्मों की समानता

आस्था और प्रार्थना की स्वतंत्रता

* सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार

* संवैधानिक उपचार का अधिकार 

 

संवैधानिक अधिकारों का महत्व

अधिकार :- किसी वस्तु को प्राप्त करने या किसी कार्य को संपादित करने के लिए उपलब्ध कराया गया किसी व्यक्ति की कानूनसम्मत संविदासम्मत सुविधा दावा विशेषाधिकार है या बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो किसी वस्तु को प्राप्त करने या किसी कार्य को अच्छे तरीके से पूरा करने के लिए उपलब्ध कराया गया किसी व्यक्ति की राज के नियमानुसार इकरार या समझौता सुविधा दावा विशेषाधिकार है | क़ानून द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ अधिकारों की रक्षा करती है | दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के बिना  संभव नहीं | जहाँ कानून अधिकारों को मान्यता देता है वहाँ इन्हें लागु करने या इनकी अवहेलना करने पर नियंत्रित करने की व्यवस्था भी स्थापित करता है | हम कुछ घटनाओं पर प्रकाश डालते हुए अपने संवैधानिक अधिकारों के महत्व को समझेंगें |

1. 1982 के एशियाई खेलों से पूर्व निर्माण कार्य के लिए सरकार नें कुछ ठेकेदारों से सेवाएँ लीं | इस निर्माण कार्य के अंतर्गत अनेक फ्लाईओवरों और स्टेडियमों का निर्माण होना था जिसके लिए ठेकेदारों ने देश के विभिन्न हिंस्सों से बड़ी संख्या में गरीब मिस्त्री और मजदूरों की भर्ती की |  लेकिन मजदूरों से कामकाज की दयनीय दशा में काम लिया गया | ठेकेदारों ने मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी | समाज वैज्ञानिकों की एक टीम ने मजदूरों की स्थिति का अध्ययन कर सर्वोच्च न्यायलय में एक याचिका दायर की | उन्होनें यह तर्क दिया कि तय की गई मजदूरी से कम मजदूरी देना 'बेगार' या 'बंधुआ-मजदूरी' जैसा है और संविधान द्वारा नागरिकों को प्राप्त 'शोषण के विरुद्ध' मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है | न्यायलय ने इस दलील को स्वीकार कर लिया और सरकार को निर्देश दिया कि वह इन हजारों मजदूरों को उनके काम के लिए निर्धारित मजदूरी दिलाए |

इस घटना में सर्वोच्च न्यायलय ने समाज वैज्ञानिकों की टीम की दलील को क्यों स्वीकार किया क्योंकि मजदूरों के पास 'शोषण के विरुद्ध' मौलिक अधिकार थें | 

2. मचल लालुंग असम के मड़िगाँव जिले के चुबुरी गाँव का रहने वाला था | उस पर आरोप था कि उसने किसी को गंभीर चोट पहुंचाई | मचल लालुंग को जब गिरफ्तार किया गया तब वह 23 वर्ष का था | मुकदमें की सुनवाई के दौरान उसे मानसिक रूप से काफी अस्वस्थ पाया गया और चिकित्सा के लिए तेजपुर 'लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई अस्पताल' में एक कैदी के रूप में भर्ती करा दिया गया | अस्पताल में उसका सफलतापूर्वक इलाज किया गया | डॉक्टरों ने जेल अधिकारीयों को दो बार (1967 , 1996 ) चिट्ठी भेजी कि लालुंग अब स्वस्थ है और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है | परन्तु किसी ने भी उस पर ध्यान नहीं दिया और लालुंग न्यायिक हिरासत में बना रहा | जुलाई, 2005 में मचल लालुंग को जेल से छोड़ा गया | उस समय वह 77 वर्ष का हो चूका था | इस प्रकार वह 54 वर्ष तक हिरासत में रहा और इस दौरान उसके मुक़दमे की एक बार भी सुनवाई नहीं हुई | जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा नियुक्त एक टीम ने राज्य में बंदियों का निरीक्षण किया तब जाकर लालुंग को स्वतंत्र होने का अवसर मिला | मचल का पूरा जीवन हीं व्यर्थ बीत गया क्योंकि उसके मुकदमे की सुनवाई हीं न हो सकी | हमारा संविधान सभी नागरिकों को 'जीवन और स्वतंत्रता' का अधिकार देता है | इसका तात्पर्य यह है कि सभी नागरिकों को अपने मुकदमें की निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार है | मचल लालुंग का मामला उस स्थिति की ओर इशारा करता है जब संविधान द्वारा दिये गए अधिकार व्यवहार में प्राप्त नहीं होतें | 

इसी प्रकार पहले उदाहरण में भी संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन दिखाई पड़ता है लेकिन उसे न्यायालय में चुनौती दी गई | इससे मजदूरों को उचित मजदूरी मिली जिसके वे हक़दार थें, इन मजदूरों को 'शोषण के विरुद्ध संवैधानिक  अधिकार' के कारण न्याय प्राप्त हो सका |     

अधिकारों का घोषणा पत्र

उपर्युक्त दोनों उदाहरणों से व्यक्तियों के अधिकारों और उन्हें लागु किये जाने का महत्व पता चलता है | अधिकतर प्रजातांत्रिक देशों में नागरिकों के अधिकारों को संविधान में सूचीबद्ध कर दिया जाता है | प्रजातंत्र में यह सुनिश्चित होना चाहिए की नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त हैं जिन्हें सरकार सदैव मान्यता देगी | संविधान द्वारा प्रदत और संरक्षित अधिकारों की ऐसी सूची को 'अधिकारों का घोषणापत्र' कहतें हैं | अतः अधिकारों का घोषणापत्र सरकार को नागरिकों के अधिकारों के विरुद्ध काम करने से रोकता है तथा उसका उल्लंघन हो जाने पर उपचार भी सुनिश्चित करता है | 

प्रश्न उठता है कि नागरिकों के अधिकारों को संविधन किस्से संरक्षित करता है ? नागरिकों के अधिकारों को किसी अन्य व्यक्ति या निजी संगठनों से खतरा हो सकता है | ऐसी स्थिति में व्यक्ति को सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान किये जाना आवश्यक हो जाता है | सरकार को व्यक्ति के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध होना आवश्यक है इसके अतिरिक्त सरकार के विभिन्न अंग ( विधायिका, कार्यपालिका, नौकरशाह या न्यायपालिका ) भी कार्यों का सम्पादन में नागरिकों के अधिकारों का हनन कर सकते हैं |


भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार

स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान, स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने इन अधिकारों का महत्व समझा था और अंग्रेज शासकों को जनता के अधिकारों का आदर करने की मांग की थी | 'मोतीलाल नेहरू समिति' ने 1928 में हीं 'अधिकारों के एक घोषणापत्र' की मांग उठाई थी | अतः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान के निर्माण के दौरान संविधान में अधिकारों को सम्मिलित करने और उन्हें सुरक्षित करने पर सभी सहमत थे | संविधान में उन सभी अधिकारों को सूचीबद्ध किया गया जिन्हे सुरक्षा प्रदान करनी थी और उन्हें मौलिक अधिकारों की संज्ञा दी गई | मौलिक अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण है और यही कारण है कि उन्हें संविधान में सूचीबद्ध किया गया है एवं उनकी सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान बनाये गए हैं | ये अधिकार इतने महत्वपूर्ण है कि  संविधान स्वयं यह सुनिश्चित करता है कि सरकार द्वारा भी उनका उल्लंघन न किया जा सके | मौलिक अधिकार हमारे दूसरे अधिकारों से भिन्न है | जहाँ साधारण कानूनी अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने तथा लागू करने के लिए साधारण कानूनो की मदद ली जाती है, वहीं मौलिक अधिकारों की गारंटी एवं उनकी सुरक्षा स्वयं संविधान सुनिश्चित करता है | संसद कानून बनाकर सामान्य अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है परन्तु मौलिक अधिकारों में परिवर्तन बिना संविधान में संशोधन किये नहीं किया जा सकता है | इसके अतिरिक्त सरकार का कोई भी अंग मौलिक अधिकारों के खिलाफ कोई कार्य नहीं कर सकता | इस अध्याय में आगे यह चर्चा की गई है कि सरकार के कार्यों से मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने की शक्ति तथा इसका उत्तरदायित्व न्यायपालिका के पास है | विधायिका या कार्यपालिका के किसी भी कार्य या निर्णय से यदि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है या उन पर अनुचित प्रतिबंध लगाया जाता है तो न्यायपालिका द्वारा उसे अवैध घोषित किया जा सकता है | परन्तु मौलिक अधिकार निरंकुश या असीमित अधिकार नहीं है |  सरकार को यह अधिकार है कि वह मौलिक अधिकारों के प्रयोग पर 'औचित्यपूर्ण' प्रतिबंध लगा सकती है |

मौलिक अधिकार - अधिकतर प्रजातांत्रिक देशों में अधिकारों को सूचिबद्ध कर दिया जाता है | प्रजातंत्र में यह सुनिश्चित होना चाहिए की नागरिकों को ऐसे कौन-कौन से अधिकार प्राप्त है जिन्हें सरकार सदैव मान्यता देगी | भारत के संविधान द्वारा प्रदत और संरक्षित अधिकारों के ऐसे सूची को मौलिक अधिकार की संज्ञा दी गई है |    


भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की सूचि :- 

1. समता का अधिकार -

2. स्वतंत्रता का अधिकार एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार -

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार -

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार -

5. अल्पसंख्यक समूहों के लोगों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार -

6. संवैधानिक उपचरो का अधिकार -





1. समता का अधिकार - नीचे दो स्थितियाँ दी गयी है, उन पर विचार कीजिये | ये दोनों हीं काल्पनिक स्थितियाँ हैं | पर ऐसी बातें होती रहती है और आगे भी हो सकती है | क्या आपको लगता है कि इनमें मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है ?

* स्वदेश कुमार अपने एक दोस्त के साथ गाँव गया | गाँव के होटल में उनकी चाय पीने की इच्छा हुई | दुकानदार स्वदेश कुमार को जानता था पर उसके दोस्त की जाती जानने के लिए उसने उसका नाम पूछा | उसके बाद दुकानदार ने स्वदेश कुमार को तो एक सुन्दर से कप में चाय दी परन्तु उसके मित्र को कुल्हड़ में चाय दी | 


* टेलीविजन के एक चैनल में समाचार पढ़ने वाले कुल दस सदस्यों में से सिर्फ चार को यह आदेश दिया गया कि आगे से वे समाचार न पढ़ें | वे सभी महिलायें थीं | इसका कारण यह बताया गया कि चारो महिलायें 45 वर्ष की उम्र को पार कर चुकीं हैं लेकिन इतने उम्र को पार चुके दो पुरुषों पर यह प्रतिबंध नहीं लगाया गया |

ये सभी उदाहरण भेद भाव को स्पष्ट दर्शातें हैं | एक में जाती और दूसरे में लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया | आपकी राय में इस प्रकार का भेदभाव उचित है ?

'समता का अधिकार' इसी प्रकार के भेदभाव को खत्म करने का प्रयास करता है | यह सार्वजानिक स्थलों जैसे- दुकान, होटल, मनोरंजन स्थल, कुआँ, स्नानघाट और पूजा स्थलों में समानता के आधार पर प्रवेश में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता | यह उपर्युक्त आधारों पर लोक सेवााओं में भी कोई भेदभाव वर्जित करता है | संविधान द्वारा यह अधिकार बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि पूर्व में (संविधान लागू होने से पहले) हमारे समाज में समानता के आधार पर प्रवेश नहीं दिया जाता था |

भारत का संविधान भारत के किसी भी राज्य में रहने, बसने और अपने राज्य में किसी दूसरे राज्य के नागरिकों को  

असमानता का सबसे भद्दा रूप छुआछूत की प्रथा थी | 'समता के अधिकार' के द्वारा इसे ख़त्म कर दिया गया | इसी अधिकार के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई है कि सिर्फ उन व्यक्तियों को छोड़कर जिन्होंने सेना या शिक्षा के क्षेत्र में गौरवपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की है राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति को कोई उपाधि नहीं दी जाएगी | इस प्रकार समता का अधिकार भारत को एक सच्चे लोकतंत्र के रूप में स्थापित करने का प्रयास करता है जिसमे सभी नागरिकों को समान प्रतिष्ठा एवं गरिमा प्राप्त हो सके |

अनुच्छेद 16 (4) - " इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य के पिछड़े हुए नागरिकों के किसी भी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में, राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियक्ति या पदों का आरक्षण करने से नहीं रोकेगी |"

संविधान की प्रस्तावना में समानता के बारे में दो बातों का उल्लेख है : प्रथम प्रतिष्ठा की समानता और दूसरा अवसर की समानता | अवसर की समानता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर प्राप्त हो | लेकिन जब समाज में बहुतसारी समाजिक विषमताएँ विद्द्यमान हो, तो वहाँ समान अवसरों का क्या मतलब हो सकता है | संविधान में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि सरकार बच्चों, महिलाओं तथा समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की बेहतरी के लिए विशेष योजनाएँ तथा निर्णय लागू कर शक्ति है | आपने नौकरियों तथा स्कूल में प्रवेश के लिए 'आरक्षण'के बारे में निश्चित रूप से सुना होगा | आपको शायद आश्चर्य भी हुआ होगा कि समानता का सिद्धांत का पालन करने के बावजूद यहाँ 'आरक्षण' क्यों है ?

वास्तव में संविधान के अनुच्छेद 16  (4) - में यह साफ़-साफ़ उल्लेख किया गया है कि आरक्षण जैसी नीति को समानता के अधिकार के उल्लंघन के रूप में नहीं देखा जा सकता | यदि आप संविधान की भावना देखें तो आप पायेंगें कि 'अवसर की समानता' के अधिकार को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है |


स्वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद 21 - जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण "किसे व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थपित प्रक्रिया के अनुसार हीं वंचित किया जायेगा या नहीं |"   

प्रत्येक लोकतंत्र में समता और स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है | दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इनमें से एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती | स्वतंत्रता का मतलब है चिंतन, अभिव्यक्ति तथा कार्य की स्वतंत्रता | लेकिन स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति जैसा चाहे वैसा करने लगे | यदि ऐसा करने की अनुमति दे दी जाये तो बहुत सारे लोग स्व्तंत्रता का आनंद उठाने से वंचित रह जायेंगे | अतः स्वतन्त्र को इस तरह परिभाषित किया जाता है कि बिना किसी अन्य की स्वतंत्रता को हानि पहुंचाए और बिना कानून व्यवस्था का उल्लंघन किये, प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का आनंद उठा सके |

स्वतंत्रता - जीवन की वह अवस्था जिसमे व्यक्ति बिना किसी दूसरे को नुकसान पहुँचाए, बिना कानून-व्यवस्था का उल्लंघन किये मुक्त रूप से चिंतन, अभिव्यक्ति तथा कार्य कर सके |   

 

जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार

स्वतंत्रता के सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में 'जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार' है | किसी भी नागरिक को कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के पालन किये बिना उसके जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता | इसका मतलब यह है कि  किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताये गिरफ्तार नहीं किया जा सकता | गिरफ्तार किये जाने पर उस व्यक्ति को अपने पसंदीदा वकील के माध्यम से अपना बचाव करने का पूर्ण अधिकार है | इसके अतिरिक्त, पुलिस के लिए यह जरूरी है कि 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश करे | मजिस्ट्रेट हीं इस बात का निर्णय करेगा कि गिरफ़्तारी उचित है या नहीं | 


इस अधिकार द्वारा किसी व्यक्ति के जीवन को मनमाने ढंग से खत्म करने के विरुद्ध हीं गारंटी नहीं मिलती बल्कि इसका दायरा और भी व्यापक है | सर्वोच्च न्यायालय के पिछले अनेक निर्णयों द्वारा इस अधिकार के दायरे को काफी विस्तृत किया गया है | सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के अनुसार इसमें शोषण से मुक्त एवं मानवीय गरिमा से पूर्ण जीवन जीने का अधिकार अंतर्निहित है | न्यायालय ने निर्णय दिया है कि 'जीवन के अधिकार' का अर्थ है कि व्यक्ति को आश्रय तथा आजीविका का भी अधिकार हो क्योकि इसके बिना कोई भी व्यक्ति जिन्दा नहीं रह सकता |


निवारक नजरबंदी

सामान्यतः किसी व्यक्ति कको गिरफ्तार तभी किया जाता है जब उसने कोई अपराध किया हो, लेकिन अपवाद भी हैं | कभी-कभी किसी व्यक्ति को इस आशंका पर भी कि वह कोई गैर-कानूनी कार्य करने वाला है गिरफ्तार किया जा सकता है | गिरफ्तार करने के बाद उसे वर्णित प्रक्रिया पालन किये बिना हीं कुछ अवधि के लिए जेल भेजा जा सकता है | इसका मतलब यह हुआ कि यदि सरकार को आशंका है कि कोई व्यक्ति देश की कानून व्यवस्था या शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है, या व्यवधान उत्पन्न कर सकता है तो वह उसे बंदी बना सकता है परन्तु निवारक नजरबंदी की अधिकतम अवधि 3 महीने हीं ही सकती है | तीन महीने बीतने के बाद इस प्रकार के मामले समीक्षा के लिए एक सलाहकार बोर्ड के समक्ष लाये जातें है | 

प्रत्यक्ष रूप से निवारक नजरबंदी सरकार के लिए असमाजिक तत्वों एवं राष्ट्र विद्रोही तत्वों से निपटने का एक हथियार है | लेकिन सरकारों ने अक्सर इसका दुरपयोग किया है | बहुत सारे लोगों का मानना है कि इस कानून में कुछ ऐसे सुरक्षात्मक उपाय किये जाने चाहिए जिससे सामान्य नागरिकों के खिलाफ अन्य किसी कारण से इसके दुरूपयोग को रोका जा सके | वास्तव में जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों एवं निवारक नजरबंदी के प्रावधानों के परस्पर विरोधाभास है |


अन्य स्वतंत्रताएँ

यह स्पष्ट है कि 'स्वतंत्रता के अधिकार' के अंतर्गत कुछ और अधिकार भी दिए गए हैं | लेकिन इनमें से कोई भी अधिकार निरंकुश नहीं है | इनमें से प्रत्येक अधिकार के प्रयोग पर सरकार द्वारा कुछ प्रतिबंध लगाया जा सकता है | सभा और सम्मेलन करने की स्वतंत्रता तो दी गई है परन्तु इस शर्त के साथ कि वह शांतिपूर्ण और बिना हथियार के हो | सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी क्षेत्र में पाँच या पाँच से अधिक लोगों की सभा पर प्रतिबंध लगा सकती है | प्रशाशन द्वारा इस शक्ति का आसानी से दुरूपयोग किया जा सकता है | वह सरकार के किसी कार्य या नीति के खिलाफ जनता को न्यायोचित विरोध-प्रदर्शन करने की अनुमति देने से मना कर सकता है | परन्तु यदि जनता अधिकारों के प्रति सजग और सतर्क हो और प्रशासन के ऐसे कार्यों का विरोध करे तो इसके दुरूपयोग की संभावना बहुत कम हो जाती है | संविधान सभा में भी कुछ सदस्यों द्वारा अधिकारों को प्रतिबंधित करने पर असंतोष जताया गया था | 


आरोपी या अभियुक्त के अधिकार

भारत के संविधान में इस बात का भी प्रावधान किया गया है कि जिन लोगों पर भिन्न-भिन्न अपराधों का आरोप है उन्हें भी पर्याप्त सुरक्षा प्राप्त हो | लोग अक्सर ऐसा विश्वास कर लेते हैं कि जिस पर भी किसी अपराध का आरोप लगता है वह दोषी है | लेकिन जब तक न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को अपराध का दोषी नहीं ठहराया जाता तब तक उसे दोषी नहीं माना जा सकता | यह भी आवश्यक है कि किसी अपराध के आरोपी को स्वयं को निर्दोष साबित करने का समुचित अवसर मिले | न्यायालय में निष्पक्ष मुकदमें के लिए संविधान में तीन अधिकारों की व्यवस्था की है -

* किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक बार से अधिक सजा नहीं दी जा सकती ;

* कोई भी कानून किसी भी ऐसे कार्य को जो उक्त कानून के लागु होने से पहले किया गया हो, अपराध घोषित नहीं कर सकता | 

* किसी भी व्यक्ति स्वंय अपने खिलाफ साक्ष्य देने के लिए नहीं कहा जा सकता |



शोषण के विरुद्ध अधिकार

भारत में करोड़ों लोग गरीब, दलित-शोषित और वंचित हैं या लोगों के द्वारा उनका शोषण किया जा रहा है | इस प्रकार के शोषण को भारत में 'बेगार' या 'बंधुआ-मजदूरी' के रूप में जाना जाता है | इसी प्रकार के एक शोषण में लोगों को 'दास' के रूप में खरीदा और बेचा जाता था | भारत का संविधान इन दोनों तरह के शोषण पर प्रतिबंध लगाता है | अतीत में जमींदार, सूदखोर तथा अन्य धनी लोग 'बंधुआ-मजदूरी' करवाते थें |  देश में अभी भी विशेष कर भट्टे के काम में, बंधुआ-मजदूरी करवाई जाती है | अब इसे अपराध घोषित कर दिया गया है और यह कानून द्वारा दंडनीय है | 

भारतीय संविधान के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी कारखाने, खदान या अन्य किसी जगह खतरनाक काम में नियोजित नहीं किया जा सकता | इस प्रकार बालश्रम को अवैध बना कर तथा शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बनाकर 'शोषण के विरुद्ध' संवैधानिक अधिकार को अर्थपूर्ण बना दिया गया है |

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

भारत के संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार धर्म का पालन करने का अधिकार दिया है | इस स्वतंत्रता को लोकतंत्र का प्रतीक माना जाता है | इतिहास साक्षी है कि विश्व के अनेक देशों के शासको और राजाओं ने अपने-अपने देश की जनता को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं दिया | शासकों से भिन्न धर्म को मानने वाले लोगों को या तो मार डाला गया या मजबूर किया गया कि वे शासको द्वारा मान्य धर्म को स्वीकार करें | अतः लोकतंत्र में अपनी इच्छा के अनुसार धर्म पालन करने की स्वतंत्रता को सदैव एक बुनियादी सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया है |


आस्था और प्रार्थना की स्वतंत्रता

भारत में प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म चुनने और उसका पालन करने का संवैधनिक अधिकार प्राप्त है | धार्मिक स्वतंत्रता में अंतःकरण की स्वतंत्रता भी शामिल है | इसका मतलब है कि कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है या निर्णय ले सकता है कि वह किसी धर्म का पालन नहीं करेगा | धार्मिक स्वतंत्रता का यह भी अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को अपने धर्म को बिना किसी रूकावट के मानने, उसके अनुसार आचरण करने तथा प्रचार करने का समान अधिकार होगा | परन्तु धार्मिक स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध भी है | लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधार पर सरकार धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है | धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है | कुछ समाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए सरकार द्वारा धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप किया जा सकता है | उदहारण के लिए सरकार ने सती प्रथा, एक से अधिक विवाह और मानव-बलि जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध के लिए अनेक कदम उठाए हैं | इस प्रकार के प्रतिबंधों को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं माना जा सकता | 


धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर नियंत्रण लगाने से विभिन्न धर्म के मानने वालों और सरकार के बीच अक्सर हीं तनावपूर्ण स्थितियाँ पैदा होती हैं | जब भी किसी धार्मिक समुदाय के कुछ क्रियाकलापों पर सरकार द्वारा नियंत्रण लगाया जाता है, तो उस समुदाय के लोग यह महसूस करतें हैं कि यह उनके धर्म में एक हस्तक्षेप है | एक दूसरा कारण भी है जिससे धार्मिक स्वतंत्रता राजनीतिक विवाद का विषय बन जाती है | संविधान में सभी लोगों को अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है | इसमे लोगों को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन के लिए मनाने का अधिकार भी शामिल है परन्तु कुछ लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन का विरोध किया जाता है | उनका विश्वास है कि धर्मांतरण भय या लालच के आधार पर कराये जातें हैं | संविधान में भी जबरन धर्म-परिवर्तन की मनाही है | वह हमें सिर्फ अपने धर्म के बारे में सूचनाएँ प्रसारित करने का अधिकार देता है जिससे हम दूसरे को अपने धर्म की ओर आकर्षित कर सकें |

सभी धर्मों की समानता

भारत विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है और इस कारण यह आवश्यक है कि सरकार सभी धर्मों के साथ समानता का व्यवहार करे | इसका अर्थ यह भी है कि सरकार किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेगी | भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं है | भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश या अन्य किसी सार्वजानिक पद पर कार्य करनेवाले व्यक्ति को किसी धर्म विशेष का सदस्य होना आवश्यक नहीं है | 'समानता के अधिकार' के अंतर्गत भी हमने अध्यन किया है कि सभी नागरिकों को इस बात की गारंटी दी गई है कि सरकार नौकरियों में नियुक्ति के संबंध में सरकार द्वारा धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा | राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं में न तो किसी धर्म का प्रचार किया जाएगा न हीं कोई धार्मिक शिक्षा दी जाएगी और न हीं उसमें प्रवेश के लिए किसी धर्म को वरीयता दी जाएगी | इन प्रावधानों से धर्म निरपेक्षता को जीवन और बल मिकता है | 

सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकर 

जब भी हम भारतीय समाज कि चर्चा करतें हैं तो हमारे मन में विविधता की छवि उभर का सामने आ जाती है | भारतीय समाज कोई समरूप समाज नहीं है बल्कि इसमें काफी विविधता है | इस प्रकार के विविधता भरे समाज में कुछ समुदाय छोटे तथा कुछ बड़े हैं | क्या ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक समुदाय की  संस्कृति स्वीकार करनी पड़ेगी ? हमारा संविधान मानता है कि 'विविधता' हमारे समाज की मजबूती है | इसलिए अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृतियों को बनाये रखने का अधिकार है | किसी समुदाय को सिर्फ धर्म के आधार पर हीं नहीं बल्कि भाषा एवं संस्कृति के आधार पर भी अल्पसंख्यक माना जाता है | अल्पसंख्यक उस समूह को कहा जाता है जिनकी अपनी एक भाषा या धर्म होता है और देश के किसी एक भाग में या पूरे देश में संख्या के आधार पर वह किसी अन्य समूह से छोटा होता है | इस प्रकार के अल्पसंख्यक समूहों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने एवं उसे विकसित करने का अधिकार है | भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यकों को ( अर्थात जिनकी संख्या भाषा या संस्कृति के आधार पर या धर्म के आधार पर कम हो ) अपने शिक्षण संस्थान खोलने का अधिकार है | ऐसा करके वे अपनी संस्कृति को सुरक्षित और विकसित कर सकतें हैं | शिक्षण संस्थाओं को वित्तीय अनुदान देने के मामले में सरकार द्वारा इस आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा कि उस शिक्षण संस्थान का प्रबंध किसी अल्पसंख्यक समुदाय के हाथ में है |       


संवैधानिक उपचार का अधिकार

इस बात से प्रत्येक व्यक्ति सहमत होगा कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों की सूची बड़ी आकर्षक है परन्तु अधिकारों की विस्तृत सूचि दे देना हीं काफी नहीं | उन्हें व्यवहार में लाने के लिए कोई तरीका होना चाहिए जिससे उल्लंघन होने पर अधिकारों की रक्षा की जा सके | 

'संवैधानिक उपचारों का अधिकार' वह साधन है जिसके द्वारा ऐसा किया जा सकता है | डॉ 0 अंबेडकर ने इस अधिकार को संविधान की 'ह्रदय और आत्मा' की संज्ञा दी | इसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार हासिल है कि वह अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सीधे उंच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है | सर्वोच्च न्यायालय या उंच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को फिर से बहाल करने के लिए सरकार को आदेश या निर्देश दे सकती है | ऐसे मामलों में न्यायालय कई प्रकार के आदेश या निर्देश दे सकती है जिन्हें प्रादेश या रिट कहा जाता है | बाद में इन अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका के अतिरिक्त कुछ  संरचनाओं का निर्माण किया गया | राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग,राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग आदि संस्थाएँ क्रमशः अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों के अधिकारों की रक्षा करती है | इसके आलावा, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए कानून द्वारा वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का भी गठन किया गया है |

न्यायलय के विशेष प्रकार के आदेश जो मौलिक अधिकारों को संरक्षित करता है |  

बंदी प्रत्यक्षीकरण - बंदी प्रत्यक्षीकरण के द्वारा न्यायालय किसी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश देता है | यदि गिरफ़्तारी का तरीका या कारण गैरकानूनी या असंतोषजनक हो तो न्यायलय गिरफ्तार व्यक्ति को तुरंत छोड़ने का आदेश दे सकता है |

परमादेश - इस आदेश को तब जारी किया जाता है जब न्यायलय को लगता है कि कोई सार्वजानिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है और इस कारण किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है | 

निषेध आदेश - जब एक निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किसी मुक़दमे की सुनवाई करता है तो ऊपर की अदालतें ( उच्च न्यायलय, सर्वोच्च न्यायालय ) उसे ऐसा करने से रोकने के लिए ' निषेध आदेश ' जारी करती है |

अधिकार पृच्छा - जब किसी व्यक्ति को ऐसे पद पर नियुक्त कर दिया जाता है जिस पर उसका कोई कानूनी हक़ नहीं है तब न्यायालय ' अधिकार पृच्छा आदेश '  जारी करती है |

उत्प्रेषण रिट - जब कोई निचली अदालत द्वारा बिना अधिकार के कोई कार्य किया जाता है, तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर के अदालत या अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है |       


       

         


             

  

                  

                    


 



                 


     

  








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Milan Tomic

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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